बुद्धू का रिक्शा चल पड़ा। चारों तरफ पानी ही पानी। जैसे मैली नदी का एक सैलाब सा हो। पीछे सीट पर बैठा बुद्धू कानपुर शहर में पहली बार आया था। रात भर बारिश रही और वह एक फटीचर से होटल के किसी कमरे में जागता हुआ सुबह का इंतजार कर रहा था। सुबह हो, तो वह अपनी नई-नवेली नौकरी पर जाए जो उसे मिली कैसे, यह भी उसे अभी तक पता नहीं था? उसे अचानक बैठे बिठाए ऑर्डर मिल गया था। एम.एस.सी. फर्स्ट क्लास था, फिर भी खूब धक्के खाए। जब अचानक ऑर्डर आसमान से टपके एक-पल की तरह उसकी गोद में आ गिरा तब वह हैरान था। पिता से बोला - 'मैंने यहाँ न तो अप्लाई किया था, न कोई इंटरव्यू दिया था, फिर भी, यह नौकरी मुझे मिली कैसे?' पिता ने कहा - 'ईश्वर के चमत्कार देखते चलो। मैंने कई बार तुम्हारे लिए प्रार्थना की, अब ऑर्डर मिल गया है तो यह मत पूछो, कि नौकरी मिली कैसे?'
बुद्धू को मोहल्ले में दोस्तों ने भी खूब खींचा। कोई कह रहा था - 'किसी ने तेरे साथ मजाक किया है यार, तूने अप्लाई तो किया नहीं। फिर यह नौकरी तुझे मिली कैसे?' उस दिन इस सारे सस्पेंस के बावजूद बुद्धू बहुत खुश था। 'चाहे झूठ-मूठ सही, मुझे भी नौकरी का ऑर्डर आया तो है!' उसी दिन वह अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ उसके घर गया। उसकी माँ के पाँव छुए। माँ ने खाना बनाया तो दोस्त अलमारी से शराब की बोतल का क्वार्टर भी निकाल लाया। माँ ने डाटा - 'छोड़, वो है शरीफ लड़का और तू उसे शराब पिलाने ले आया।' दोस्त ने कहा - 'आज वो बहुत खुश है। साल में एकाध बार पी लेता है।' दोस्त की माँ ने अविश्वास से बुद्धू की तरफ देखा - 'सच? तू भी शराब पीता है? मैं तो समझी थी तू महात्मा है इस मोहल्ले का!' बुद्धू लजा गया। बोला - 'साल में एकाध पेग ले लेता हूँ, महात्मा-वहात्मा तो नहीं हूँ... बस।' बहरहाल, शराब के लिए गिलास आ गए, बुद्धू का दोस्त बड़ा शरारती था। दो-तीन और दोस्त मोहल्ले से बुला लाया। माँ की नजर बचाकर सब घर के एक तंग से कमरे में जा बैठे और बुद्धू को पिलाते रहे। बुद्धू तीन पेग चढ़ा कर ही बहकने लगा। दरवाजा बंद था, सो शरारती दोस्त बाहर जा कर किचन से ही खाने की प्लेटें लाता रहा ताकि माँ को ज्यादा पता न चले कि बुद्धू कितना 'डाउन' है। बुद्धू ने खाना खा लिया तो एक दोस्त बोला - 'अब?'
दूसरे ने कहा - 'चलते हैं, एक स्पीच सुनने। यहीं, अपने मुखर्जी पार्क में तो स्पीच है। इलेक्शन में बस थोड़े से ही दिन बचे हैं।' खाना खाकर दोस्तों के साथ बुद्धू माँ की नजर बचाकर लड़खड़ाता नीचे, सड़क तक आ गया। थोड़ी ही दूर स्पीच होनी थी। किसी छुटभय्ये नेता की आवाज यहाँ भी आ रही थी। बुद्धू को दोनों तरफ से दोस्तों ने बाँहों से घेर कर आगे बढ़ाया। बुद्धू लड़खड़ाता हुआ बहकने भी लगा - 'नौकरी बहुत मुश्किल से मिली। इस सरकार के राज में तो आदमी भूखा मर जाए'। और ऐसा कहते-कहते सब लोग पहुँच गए स्पीच वाली जगह। बुद्धू के दोस्तों ने क्या किया कि आगे-आगे की पंक्ति में नीचे पल्थी मारकर जम गए। एक जनसंघी नेता आ चुका था। यह वही नेता था जिसने बाद में इसी, सन 71 के चुनाव में करारी हार के बाद देश में 'केमिकल बैलट' का हल्ला मचा कर अपनी खूब खिंचाई करवाई थी। उसने कहा था कि 'देश के लोगों ने भारी मात्रा में जनसंघ को वोट दिए, लेकिन बैलट-पेपर पर पहले से ही कोई केमिकल लगा हुआ था और काउंटिंग सेंटर तक पहुँचते-पहुँचते वह मोहर मिट गई और उसकी जगह एक और मोहर अचानक उभरकर आई जो कांग्रेस के नाम पर पहले से ही लगाई हुई थी, पर मतदाता को नजर नहीं आई थी मतदान के समय।' उसके आते ही जोरदार स्वागत हुआ और बुद्धू चिल्लाने लगा - 'शेम... शेम शेम...' सबका ध्यान बुद्धू की तरफ। यह कौन है? क्या कोई बदमाश आ गया है? बुद्धू के दोस्त खूब हँसे। एक ने उसे झाड़ कर चुप करा दिया। बलराज मधोक की स्पीच शुरू हुई। कहने लगा - 'इंदिरा गांधी के राज में गरीबी नहीं हटी, गरीब ही हट रहा है।' बुद्धू चिल्ला पड़ा - 'इंदिरा गांधी जिंदाबाद... इंदिरा गांधी जिंदाबाद।' और वही छुटभय्या नेता अचानक दो-चार जनसंघियों को लेकर इस तरफ आ गया। इसकी उम्मीद तो बुद्धू के शरारती दोस्तों को भी नहीं थी। उस नेता ने अपने कार्यकर्ताओं की मदद से सबको जबरदस्ती अपने पैरों पर खड़ा करवाया और ले गया नजदीक के थाणे। बुद्धू रोने लगा - 'मैं इतने अच्छे घर का लड़का, कहाँ फँस गया आ कर।' बहरहाल उस दिन ये लड़के बुद्धू के दोस्त की माँ की मदद से ही बचे थे। बुद्धू के दोस्त की माँ ने अपने छोटे बेटे को मेट्रोपॉलिटन काउंसिलर के घर भेज दिया जो कुछ ही देर में उस कार्यक्रम में जाने वाला था और मेट्रोपॉलिटन काउंसिलर ने उसी छुटभय्ये नेता से संपर्क साध के सबको छुड़वा दिया कि 'ये सब तो अपने ही हैं!' बुद्धू को वह दिन याद करके रिक्शे में खूब हँसी आई। रिक्शे वाले से बोला - 'हवा तो बहुत बढ़िया चल रही है। मजा आ रहा है यार।' रिक्शे को पैदल खींच-खींचकर पानी की लहरों से युद्ध करते रिक्शे वाले की शक्ल-सूरत ही अजीबो-गरीब सी हो गई थी। वह एक हाथ में हैंडल और दूसरे हाथ से अपनी बैठने की सीट को कहीं से पकड़े बहुत आगे की तरफ झुक गया था और उसके होंठ बुरी तरह भींच गए थे। उसके चेहरे की तो लंबाई बढ़ गई थी और चौड़ाई लगभग गायब थी। उसकी पूरी आकृति पृथ्वी के साथ एक कोण पर थी और उसकी टाँगें घुटनों से नीचे तक पानी में डूबी थी, पाँव जमीन में मोटी-मोटी कीलों की तरह खुप जाते, फिर आगे बढ़ जाते। बुद्धू को रिक्शे वाले की सूरत देखकर भी हँसी आ रही थी। अपना बैग और एयरबैग अच्छी तरह अपने साथ सटाए हुए बैठ गया था और चारों तरफ देख रहा था कानपुर। थोड़ी ही दूर कानपुर की थोड़ी बेहतर सड़कें आ जाएँगी और बेहतर इमारतें भी। चौड़ी सड़क भी, जिस पर तेजी से दौड़ती सिटी बसें भी शायद हों। तब इस सैलाब से छुटकारा मिलेगा तो रिक्शे वाले की भी जान में जान आ जाएगी और उसकी भी।
बुद्धू जब कल रात हावड़ा मेल से नीचे उतर कर हक्का-बक्का सा प्लेटफार्म पर खड़ा हुआ था तो सोच रहा था, अब कहाँ जाऊँ? उसने देखा एक गाँव का बुजुर्ग मैली सी धोती कमीज व उससे भी मैली सी पगड़ी में प्लेटफार्म के एकदम किनारे उकड़ू बैठ गया था और गाड़ी खड़ी थी अभी। चारों तरफ मुसाफिरों की भीड़। वह वहीं उकड़ू बैठा पेशाब कर रहा था और उसकी पेशाब की धार डिब्बे के किनारे को लगती हुई नीचे पटरियों तक पहुँच रही थी। बुद्धू को बेसाख्ता हँसी आ गई - 'लोग तो जैसे-तैसे भी अपने-अपने जीने का तरीका ढूँढ़ लेते हैं इस देश में! हाहहा!'
बुद्धू का रिक्शा सचमुच अब अच्छी सी सड़क पर आ गया, कुछ तिमंजिला-दुमंजिला इमारतें भी थी, और थोड़े ही फासले के बाद रिक्शा कानपुर के उस समय के सबसे खूबसूरत संगमरमरी मंदिर जे.के. मंदिर के सामने से निकला। धूप की बढ़िया किरणें इमारतों के किनारों को सुनहला सा बना रही थी। बुद्धू ने पूछा - 'अभी और कितनी दूर है नगर महापालिका बिल्डिंग?' और बुद्धू ने देखा हल्की-हल्की बूँदाबाँदी पर पड़ती सुनहली किरणों के बीच एक सुंदर सी, बॉब-कट बालों वाली हसीना कार ड्राइव करती सामने से तैर गई।
रिक्शे वाले ने कहा - 'यह इमारत तो मोती झील में बताई आपने। बस, थोड़ी देर बाद कोकाकोला फैक्ट्री आएगी, वहीं गेट है मोती झील का।' फिर थोड़ी देर में बुद्धू का रिक्शा नगर महापालिका बिल्डिंग के नीचे ही खड़ा था। बुद्धू उतरा। देखा खूब लंबी-चौड़ी इमारत है। कई दफ्तर होंगे यहाँ। कोई पिछले जनम का रिश्तेदार रहा होगा उसका, जिसे तरस आ गया और इस जनम में उसे उसकी याद आई और इस बेरोजगारी के जमाने में भी एक नौकरी का ऑर्डर भिजवा दिया उसने... आहा!
बुद्धू आनंद मोहन श्रीवास्तव के एकदम सामने बैठा था। आनंद मोहन डिप्टी डायरेक्टर थे और बुद्धू से पूछ रहे थे कि 'आप थे कहाँ? इतने दिनों बाद यहाँ प्रकट हुए हैं?' बुद्धू को तसल्ली हुई, 'अरे यह नौकरी तो मुझे अपनी लियाकत से ही मिली है। सब बदमाश दोस्त मजाक कर रहे थे।' कुछ ही देर पहले बुद्धू हाथ में वह नियुक्ति पत्र लिए श्रीवास्तव साहब के कमरे के बाहर खड़ा था और नियुक्ति पत्र व नेम प्लेट, दोनों पर एक ही नाम, आनंद मोहन श्रीवास्तव पढ़कर खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था कि 'अरे, नौकरी तो मुझे मिलनी ही थी यह!'
श्रीवास्तव ने अपना सवाल दुहराया - 'आपको यह पत्र तो दस दिन पहले मिल गया था न?'
बुद्धू लौटकर वर्तमान में उपस्थित हुआ। श्रीवास्तव से वह बोला - 'कुछ सर्टीफिकेट किसी और दफ्तर में दे रखे थे, वहाँ जा कर बताना था कि अब मुझे उनकी नौकरी का इंतजार नहीं है। फिर रिजर्वेशन भी कराना था।'
'ओ.के.' श्रीवास्तव साहब ने ज्यों ही कहा, एक अफसर कमरे का दरवाजा खोलकर अंदर आ गया और बुद्धू कुर्सियों की जिस लाइन में डिप्टी डायरेक्टर के सामने बैठा था, उसी लाइन में साधिकार आ कर बैठा। श्रीवास्तव साहब बोले - 'आइए सक्सेना साहेब। ये हैं समर्थ।'
बुद्धू अपना नाम सुनकर खुश हो गया!
बुद्धू सुजाता नाम की एक साँवली सी लड़की के सामने बैठा था और उसकी नजर थी नीरा पर, जो अति सुंदर थी। सुजाता का जिम्मा था कि बुद्धू को उसका सारा काम समझाए। बुद्धू यहाँ सुपरवाइजर होगा और सुजाता जो अब तक उसकी कुर्सी अस्थायी रूप से सँभाले थी, को सारा जिम्मा अब बुद्धू के हवाले कर देना था। जल्द ही समझ गया बुद्धू सब कुछ। क्वालिफाइड बुद्धू था। काम में मेहनत से जुट गया। दफ्तर जनगणना का था, दस साल में एक बार होती है। सबके-सब एक बड़े हॉल में बैठते व दो-तीन बड़े से कमरे और भी थे। सब नौजवान थे और विश्वविद्यालयों से हाल ही में आए थे। सुजाता ने ही बुद्धू को बताया था - 'जनगणना दफ्तर का काम अचानक बढ़ गया था सर, क्योंकि कानपुर की जनगणना में कोई भूल हो गई लगती थी। आँकड़े बिलकुल अतिशयोक्ति भरे थे। सो इस दफ्तर ने गृह-मंत्रालय को तार भेजे कि हमें कुछ सुपरवाइजरों की सख्त जरूरत है। गृह-मंत्रालय ने दिल्ली व आगरा आदि के रोजगार कार्यालयों को तुरंत कुछ पोस्ट ग्रैजुएट सप्लाई करने के तार भेज दिए थे, सो आपको भी घर बैठे ऑर्डर मिल गया।' बुद्धू का नाम तो दिल्ली के रोजगार कार्यालय में था ही।
सुजाता समझा रही थी - 'सर, यहाँ सारे डेटा की प्री-एडिटिंग होती है, सैंपलिंग भी। फिर वहाँ, उस सीट पर पोस्ट एडिटिंग और अंत में कोडिंग।' बुद्धू के अधीन तेरह लोग थे। सब उत्साह से भरे तो थे, पर श्रीवास्तव साहब ने सबको डरा रखा था। खूब सख्ती करते थे। सबको आ कर डाँट भी जाते थे।
बुद्धू से लेकिन श्रीवास्तव साहब को मोह हो गया। वे दो-तीन बार आ कर बुद्धू की सीट पर बैठे और उससे पूछते रहे कि उसने कहाँ कमरा किराए पर लिया है, और कि जब वह दफ्तर आता है तो क्या पीछे कमरा सुरक्षित रहता है। बुद्धू ने बताया - 'सर, यहीं के गुप्ता जी ने अपने पड़ोस में कमरा दिलवाया। तीसरी मंजिल पर एक बरसाती सी है, कुछ समस्याएँ भी हैं। पर सब मिलाकर ठीक-ठाक है। मकान मालिक थोड़ा कंजूस है साहब, 25 वाट का बल्ब जलाने की बात कहता है।'
श्रीवास्तव साहब को हँसी आ गई, बुद्धू के भोलेपन पर। बोले - 'ऐसा कमरा लेते जिसमें बिजली का एक 'सब-मीटर' भी लगा हो, ताकि अपनी बिजली का बिल आप खुद भरो।' तब एक अधिकारी मिश्रा जी भी वहाँ आ गए। श्रीवास्तव साहब ने, मिश्रा जी से वही बात दोहरा कर बताई। मिश्रा जी बोले - 'फिर देख भी लें कि जब ये अपनी बत्ती बंद करते हैं, तब वह 'सब-मीटर' चल तो नहीं रहा।'
'हाँ, बहुत होशियारी से रहना पड़ता है,' कहकर श्रीवास्तव साहब उठकर चले गए।
बुद्धू गंभीरता से काम कर रहा है। सब लोग इस नए सुपरवाइजर से मोह रखते हैं। इसी हॉल में दो सुपरवाइजर और हैं, पर बुद्धू अपने नीचे काम करने वाले क्लर्कों से अधिक घुलता मिलता है। दूसरे दोनों सुपरवाइजरों के नीचे भी पंद्रह सोलह क्लर्क हैं, बुद्धू ने उन सबसे भी दोस्ती गाँठ ली। सब उसे बहुत प्यार करते, कहते - 'सर, यहाँ की पॉलिटिक्स में न पड़ना आप। ऊपर के अधिकारी जालिम से हैं। सबको यहाँ रोब जमाने का मौका मिल गया है।' ऊपर के अधिकारी दरअसल नए नहीं थे, वरन अन्य सरकारी विभागों से यहाँ डेपुटेशन पर आए थे। श्रीवास्तव साहब तो जुडिशरी (न्यायपालिका) से आए थे। सब नौजवान कर्मचारी आपस में मिल-जुलकर काम करते, सब में काम करने का उत्साह। सबके-सब विश्वविद्यालय में पढ़-पढ़कर अपनी आँखों के लिए ढेर सारे सपने सँजोकर लाए थे। कुछ पोस्ट ग्रैजुएट भी थे जिन्हें फिलहाल देश में व्याप्त बेरोजगारी के तहत क्लर्की करनी पड़ रही थी।
बुद्धू को चपरासी ने आ कर कहा - 'सर, आपको श्रीवास्तव साहब बुला रहे हैं।' बुद्धू को अच्छा लगा। श्रीवास्तव साहब ने उसे सामने ही बिठाते हुए कहा - 'आपकी अँग्रेजी बहुत अच्छी लगी मुझे। यहाँ काम तो सारा हिंदी में हो रहा है, पर पत्र-व्यवहार काफी अँग्रेजी में भी करना पड़ता है।' बुद्धू खुशी के मारे फूला न समाया। कहना चाहता था - 'सर, मेरी तो हिंदी भी बहुत अच्छी है, मैं तो हीरा हूँ हीरा,' ऐसा उसे शरारती दोस्त ने मजाक में सिखा दिया था कि जरूरत पड़ते ही ऊपर वाले पर अपना रोब गालिब करते देर न करना। पर बुद्धू जब वहाँ से कुछ जरूरी हिदायतें लेकर अपने वाले हॉल में घुसा तो हॉल में जैसे इमरजेंसी लगी हुई थी। सब अधिकारी, लगभग चार-पाँच थे, हॉल में इधर-उधर खड़े हो गए थे, जैसे फील्डिंग-वील्डिंग में तैनात हों। चिल्लाने का सबको शौक हो गया था। श्रीवास्तव साहब को अपने काम में व्यस्त देख इन सबको रोब जमाने का मौका मिल जाता था। सब नए लोग हैं, इन्हें डराए रखो कि यहाँ तो मिनटों में नौकरी चली जाती है। एक तो बेचारा उसके आने से पहले भुगत ही चुका था। दफ्तर के काम के दौरान बाहर चला गया था और तीसरी मंजिल पर बने इस हॉल के बाहर बने फ्लोर पर एक पानी भरने वाली बाई से काफी देर बातें करता रहा। सक्सेना साहब यहाँ खूब रोब जमाए रहते हैं। सक्सेना साहब अपने विभाग में 'सुपरसीड' हो गए थे और प्रोमोशन न मिलने पर खूब हल्ला किया था। तब दफ्तर वालों ने उन्हें यहाँ डेपुटेशन पर भेज दिया था। यहाँ वे खासे रोब में रहते हैं। सो उस चपरासिन से गप्पें मारने वाले भी। तिवारी से बोले - 'आप अपनी सीट पर पहुँचिए।' तिवारी फौरन सीट पर पहुँच गया। वहाँ पहुँच कर सक्सेना साहब बोले - 'काम कौन सा कर रहे हैं आप?'
तिवारी थोड़ा अक्खड़ भी माना जाता था। बोला - 'सर, ये तो है मेरा काम। सैंपलिंग कर रहा हूँ!'
'सैंपलिंग कर रहे थे या उस बाई से बात करने से फुर्सत ही नहीं थी?'
'तो क्या हो गया सर, बाई इनसान नहीं है क्या?'
बस, एक महीना और बाकी रही तिवारी की नौकरी। मौका मिल गया। लखनऊ मुख्यालय से कुछ पदनामों की तैनातियों में फेरबदल का आदेश आया। ऊपर की पोस्टें बढ़ाने को कहा गया, नीचे की भले कम कर दो। सक्सेना साहब ने दो-तीन वेकेंसियाँ पहले ही दिखाई, बाकी तिवारी को नौकरी से बाहर निकालना रिकमेंड कर दिया, ताकि उससे ऊँचे पदनाम पर कुछ नए लोग लाए जा सकें।
बुद्धू ऐसे समय सुजाता के साथ कहीं चला जाता है, जब इमरजेंसी का दबाव दिन भर पड़ चुका हो। दिन भर खूब झाड़-पोंछ करके ये अफसर लोग अपनी अफसरी का मजा लेते हों। तब शाम को बुद्धू सुजाता के आगे चाय पीने की तलब पेश करता है। सुजाता कहती - 'सर, आपको यहाँ का कुछ पता नहीं। बड़े बदमाश हैं ये अफसर लोग।'
'कैसे' बुद्धू की तो कुछ समझ ही नहीं आएगा!
'अब मैं क्या बताऊँ? अच्छा, मैं आगे निकल जाती हूँ। मोती झील के गेट के बाहर मिलूँगी।'
बुद्धू सुजाता के साथ जे.के. मंदिर चला जाता है। दोनों लंबी सी संगमरमरी सीढ़ियों पर बैठ जाते हैं, बुद्धू से एक सीढ़ी नीचे वाली सीढ़ी पर सुजाता। बुद्धू बहुत खुश है। सुजाता तो इस सिस्टम की ज्यादतियों में उसकी हमराज है ही, सो वह अपने सारे खौफ उसी को बताता है। पर अभी वे दोनों दोस्ती की इस पहली सीढ़ी पर बैठे ही थे कि सुजाता उठ खड़ी हुई। उसकी हँसी भी खूब निकल रही थी - 'चलिए-उठिए सर, जल्दी 'कीजिए।'
बुद्धू तो बुद्धू ही था। चेहरा ऊपर करके सुजाता के चहरे को हक्का-बक्का सा देखने लगा - 'क्यों क्या हुआ?'
सुजाता अपनी हिप्स पर से साड़ी की सलवटों को ठीक करती हँसती भी जा रही थी - 'वो देखिए न सर! इंस्पेक्टर! सबको उठा रहा है!'
बुद्धू ने देखा एक कर्कश सा इंस्पेक्टर हाथ में डंडा लिए सबको झाड़ता भी आ रहा है। लंबी सीढ़ियों पर इधर-उधर कई जोड़े बैठे थे। पर बुद्धू उसे देखते ही लपक कर उठ खड़ा हुआ और गिरते-गिरते बचा। सुजाता ने उसे थाम लिया। उसे खूब हँसी आई। फिर वे दोनों जे.के. मंदिर के अंदर जा कर खूबसूरती देखने लगे। दोनों मानो उस सिस्टम से भागी हुई, करीब-करीब से चलती हुई आकृतियाँ लग रही थीं। सिस्टम फिर वहाँ से डंडा लेकर निकल गया, पर यहाँ उस ने किसी से कुछ कहा नहीं, क्योंकि सब लोग मंदिर की खूबसूरत आकृतियाँ देख रहे थे? जिन में कोई-कोई इन दो आकृतियों को भी प्यार से देख लेता।
सुजाता बोली - 'सिस्टम फिर आ गया है स्साला... हाहा...'
बुद्धू सुजाता के बहुत करीब आ गया था और उस खूबसूरत से गलियारे में दूर से दोनों एक ही आकृति से लग रहे थे। स्पर्श का अपना आनंद होता है, बुद्धू ने महसूस किया। यह मानो साधिकार स्पर्श था। दफ्तर में जब तब इस-उसकी डाँट खाने के बाद जैसे इनाम मिल गया हो। सुजाता चटपटी सी आवाज में बोली - 'चलिए सर। यहाँ सब देख लिया। अब और कहीं चलते हैं!'
'ओ.के.' बुद्धू अफसर की तरह बोला तो सुजाता को फिर हँसी आ गई। बोली - 'सर, आप जिस कमरे में रहते हैं, उस में काम कौन करता है?'
'एक बाई है! झाड़ू लगाती है! पोछा लगाती है। मैं उसे चाय बनाकर पिलाता हूँ!'
'सर मुझे ही नौकरानी रख दो न, मैं स...ब काम कर लूँगी। झा...ड़ू ऊऊ, पोछा... आआ... खा... न्ना... आआ...'
'तुम्हारे पास नौकरी नहीं है क्या? सब की डाँट खा कर तुम भी डर गई हो?'
सुजाता बुद्धू को एकटक देख हँसने लगी, बोली - 'सर, एक बात बताऊँ?'
'बताओ!'
'सर, आप न, बिलकुल बुद्धू हो!'
और दोनों वहाँ से रिक्शा पकड़कर कंपनी बाग चले गए। वहाँ पेड़ों की एक कतार के नजदीक थोड़ी मिट्टी सी थी। वहीं बैठ गए। यहाँ साँझ का अधूरा सा अँधेरा दोनों की आकृतियों को बहुत प्यारे तरीके से ढक भी रहा था, थोड़ा-थोड़ा उजागर भी कर रहा था। सुजाता बोली - 'यहाँ भी स्साला सिस्टम न आ जाए।'
'यहाँ सिस्टम कुछ करने नहीं आता। यहाँ तो पॉकिट भरने आता है। वो देखो। इधर आने तो दो स्साले को। पाँच-सात रुपये बख्शीश दे देंगे और क्या।' उधर कोई इंस्पेक्टर किसी से हथेली गर्म करवा कर दूसरी तरफ चला गया। ये दोनों काफी दूर थे। सुजाता बोली - 'सिस्टम लूज हो तो लोग काम भी तो नहीं करते!'
'तुम अपने आपको तो लूज करो... मतलब... अपना सिस्टम लूज!'
सुजाता चकरा सी गई। 'क्या?... वह तड़पने के अंदाज में चीख सी पड़ी और उठ बैठी क्योंकि वहाँ बुद्धू की गोद के थोड़ा निकट लेट सी गई थी वह। फिर थोड़ी देर बाद यथावत लेट गई। बुद्धू ने कहा - 'लूज करो!'
'क्या लूज करूँ...' सुजाता तड़प सी रही थी।
आखिर अँधेरा बढ़ गया तो सुजाता बोली - 'ठीक है, मेरी जिंदगी खराब कर लीजिए। यह लीजिए।' बुद्धू का हाथ कहाँ का कहाँ पहुँच रहा था। अँधेरे में उसका हाथ उसे नजर ही नहीं आ रहा था, केवल कुछ नर्मियाँ सी महसूस करने लगा। उस ने महसूस किया कि उसका हाथ किन्हीं नर्म-गर्म जगहों में गिरफ्तार सा है। या वे नर्मियाँ उसकी मुट्ठी में गिरफ्तार सी हैं। उसने सब कुछ मानो अपनी मुट्ठी में मोतियों की तरह भींच सा लिया है। जैसे अपने लिए एक खजाना समेट रहा हो। सुजाता की चीख सी निकल पड़ी और एक साथ उसकी आँखों से आँसू भी टपक पड़े और वह हँस भी पड़ी। 'सिस्टम!' अँधेरे में एक इंस्पेक्टर भूत की तरह काफी दूर से चलता नजर आया। सुजाता बुद्धू के साथ अनजानी दुनिया में खो गई थी। अचानक बुद्धू ने क्या किया कि सुजाता की पूरी लेटी हुई आकृति को ओवरलैप सा करके उसके ऊपर लेट गया और उसे पूरी तरह ढक सा दिया। अँधेरे की एक और अधिक गहरी चादर ने दोनों को और ढक दिया। सुजाता को अपने अंग-अंग को ढकती बुद्धू की आकृति के दबाव में लगा जैसे कोई वहाँ से गुजरे तो उसे सुजाता नजर ही नहीं आएगी। सुजाता को अपनी आकृति खुद अपने से भी लुप्तप्राय सी लगी। उस ने सहसा आँखें मूँद ली और मानो पूरी की पूरी आत्मा बन गई वह। दफ्तर की असह्य सी थकावट और मानसिक कड़ुवाहट के मारे जैसे उसे गहरी नींद आना चाहती है। पर फिर सहसा बोल पड़ी - 'नो सर। हमें अब चलना है। प्लीज उठ जाइए।' दोनों अगले ही क्षण बाग के बाहर एक रिक्शे में बैठे थे। रिक्शे की छतरी लगी हुई थी और अँधेरे में दोनों एकाकार से होकर बैठ गए। दो चिपकी आकृतियों की तरह। एक आकृति ने एक पंछी की तरह अपनी चोंच दूसरी की चोंच में अटका दी थी।
दफ्तर में बेइंतिहा तनाव था। पार्लियामेंट्री सवाल का जवाब तैयार हो रहा था। श्रीवास्तव साहब खुद उपस्थित थे और बाकी अफसर भी सुपरवाइजरों की सीटों के आस-पास कुर्सियाँ लगाकर बैठ गए थे, जैसे चालान-वालान काटने आए हों। लखनऊ ने फौरन कई आँकड़े माँगे थे ताकि गृह-मंत्रालय भेजे जाए, जहाँ से पार्लियामेंट्री सवाल का जवाब तैयार करके उचित समय में मंत्री महोदय तक भेजा जा सके। पर अगले दिन ही दफ्तर में एक हंगामा सा हो गया। वह दिन तो निपट गया था पर उस दिन किसी दरियाबादी का टर्मिनेशन ऑर्डर आ टपका था। नौकरी तो यहाँ मिनटों में जाती थी। टेंपरेरी ऑफिस जो था। दरियाबादी से श्रीवास्तव साहब को शिकायत थी कि वह दो-तीन बार बीच ड्यूटी में ही दफ्तर से घर हो आया था। दरियाबादी को भनक पड़ गई कि उसकी नौकरी खत्म होने का परिंदा दफ्तर तक आ चुका है। पर सक्सेना साहब के किसी खूफिए ने जा कर बताया कि दरियाबादी खिसकने की फिराक में है ताकि ऑर्डर लेना ही न पड़े। श्रीवास्तव साहब ने कच्ची गोलियाँ नहीं खाई थी। उन्होंने सक्सेना साहब को समझाया - 'कोई ऑर्डर ले या न ले। अगर वह छुट्टी भाग जाता है तो उसके रिकॉर्ड में 'स्टैंड्स रिलीव्ड' लिखने से काम चल जाता है।' पर सक्सेना साहब चाहते थे थोड़ा ड्रामा हो। उन्होंने क्या किया कि हॉल का ग्रिल बंद करवा दिया? इधर दूसरे कमरों की तरफ जो दरवाजे जाते थे वे भी बंद करवा दिए। दरियाबादी भी कोई कम जिम्नास्टिक नहीं था। वह हॉल की खिड़की पर चढ़कर खड़ा हो गया - 'मैं साइन नहीं करूँगा।' सब लोग चिल्लाने लगे - 'सर, वो कूद जाएगा...'
सक्सेना साहब थोड़े नर्वस से हो गए। तब तक श्रीवास्तव साहब ग्रिल के बाहर आ कर खड़े हो गए तो सक्सेना साहब ने ही बढ़कर ग्रिल खोला। श्रीवास्तव साहब ने सिचुएशन भाँप ली। ग्रिल पूरा खोलकर चिल्लाए - 'दरियाबादी... भागना है तो भाग जाओ। तुम्हारी नौकरी वैसे ही खत्म है।' दरियाबादी ने क्या किया कि खिड़की से कूद गया। सब घबरा गए। पर दरियाबादी दरअसल खिड़की के थोड़ा नीचे ही बने एक प्लेटफार्म जैसी चीज पर कूदा था। वहाँ से दूसरी मंजिल की कैंटीन की छत पर कूदा और वहाँ से कैंटीन के बाहर बने दूसरी मंजिल के टेरेस पर! सब ने चैन की साँस ली।
सुजाता से बुद्धू बोला - 'दरियाबादी को अब सर्कस में नौकरी मिल जाएगी।' श्रीवास्तव साहब जा चुके थे और सक्सेना साहब भी। तनाव से मुक्ति पाकर सब लोग जोर से कहकहे लगाने लगे, फिर सहसा शांत भी हो गए। कहीं उनकी भी नौकरियाँ खत्म होने के परिंदे न आ धमकें।
बुद्धू अधिक दिन इस दफ्तर में नहीं टिक पाया। सुजाता से उसकी दोस्ती मशहूर हो गई। श्रीवास्तव साहब ने सुजाता की माँ के घर ही अपनी गाड़ी भिजवा दी एक दिन रात के समय और ड्राइवर के हाथों कहलवाया - 'फौरन एक जरूरी बात करने आ जाइए।' ऐसा आशातीत था। किसी महिला कर्मचारी की माँ को संदेश भेज कर बुलाना नई बात थी। सुजाता माँ के साथ कार में बैठी और कुछ ही फासले पर कार घुप अँधेरे में अदृश्य हो गई। कार एक अँधेरे से लदे मैदान से बाहर की सड़क पर फिसल रही थी और उसकी हेड लाइट्स से लपलपाती दो रोशनी की जीभें बहुत दूर तक जा कर मानो खतरनाक तरीके से सब कुछ निगल जाना चाहती थी। सुजाता ने इस रोशनी को छलनामई समझा। आँखें मूँद ली। उसे जिस्म पर सहसा उस दिन वाली बुद्धू की ओवरलैप करती आकृति का दबाव सा महसूस हुआ और वह रो पड़ी।
'बैठिए।'
दोनों बैठ गई। श्रीवास्तव साहब ने कहा - 'आपकी बेटी दिल्ली से आए किसी सुपरवाइजर के साथ घूमती है, यह बात आपको पता है?'
'कौन... वो लड़का... समर्थ ना!'
'जी'। श्रीवास्तव साहब ने माँ के चेहरे पर अपने चश्मे के पीछे से झाँकती अपनी न्यायपालिकीय नजरें फोकसकर दीं।
माँ बोली - 'लड़का अच्छा है। मेरी बेटी ने मुझे बता रखा है। धोखा नहीं देगा।'
आपको कैसे भरोसा?' श्रीवास्तव साहब ने उस दिन संक्षेप में ही निपटा दिया सब कुछ - 'लड़का दिल्ली से है। बड़ी फैमिली से है। कभी भी धोखा देकर भाग जाएगा। तब आप क्या करेंगी?'
दोनों के चेहरों पर एक सवाल तो था, कि 'क्या आपके दफ्तर में नौकरी करने का मतलब व्यक्तिगत बातों में भी आपकी अधीनस्थता को स्वीकार करने की अनिवार्यता है?' पर यह तो सवाल था, और बुद्धू की नौकरी थोड़े ही दिन बाद छूट गई।